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Surah Al-Ankabut in Hindi

Quran Hindi ⮕ Surah Ankabut

Translation of the Meanings of Surah Ankabut in Hindi - الهندية

The Quran in Hindi - Surah Ankabut translated into Hindi, Surah Al-Ankabut in Hindi. We provide accurate translation of Surah Ankabut in Hindi - الهندية, Verses 69 - Surah Number 29 - Page 396.

بسم الله الرحمن الرحيم

الم (1)
अलिफ़, लाम, मीम।
أَحَسِبَ النَّاسُ أَن يُتْرَكُوا أَن يَقُولُوا آمَنَّا وَهُمْ لَا يُفْتَنُونَ (2)
क्या लोगों ने समझ रखा है कि वे छोड़ दिये जायेंगे कि वे कहते हैं: हम ईमान लाये! और उनकी परीक्षा नहीं ली जायेगी
وَلَقَدْ فَتَنَّا الَّذِينَ مِن قَبْلِهِمْ ۖ فَلَيَعْلَمَنَّ اللَّهُ الَّذِينَ صَدَقُوا وَلَيَعْلَمَنَّ الْكَاذِبِينَ (3)
और हमने परीक्षा ली है उनसे पूर्व के लोगों की, तो अल्लाह अवश्य जानेगा[1] उन्हें, जो सच्चे हैं तथा अवश्य जानेगा झूठों को।
أَمْ حَسِبَ الَّذِينَ يَعْمَلُونَ السَّيِّئَاتِ أَن يَسْبِقُونَا ۚ سَاءَ مَا يَحْكُمُونَ (4)
क्या समझ रखा है उन लोगों ने, जो कुकर्म कर रहे हैं कि हम से अग्रसर[1] हो जायेंगे? क्या ही बुरा निर्णय कर रहे हैं
مَن كَانَ يَرْجُو لِقَاءَ اللَّهِ فَإِنَّ أَجَلَ اللَّهِ لَآتٍ ۚ وَهُوَ السَّمِيعُ الْعَلِيمُ (5)
जो आशा रखता हो अल्लाह से मिलने[1] की, तो अल्लाह की ओर से निर्धारित किया हुआ समय[2] अवश्य आने वाला है। और वह सब कुछ सुनने जानने[3] वाला है।
وَمَن جَاهَدَ فَإِنَّمَا يُجَاهِدُ لِنَفْسِهِ ۚ إِنَّ اللَّهَ لَغَنِيٌّ عَنِ الْعَالَمِينَ (6)
और जो प्रयास करता है, तो वह प्रयास करता है अपने ही भले के लिए, निश्चय अल्लाह निस्पृह है संसार वासियों से।
وَالَّذِينَ آمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ لَنُكَفِّرَنَّ عَنْهُمْ سَيِّئَاتِهِمْ وَلَنَجْزِيَنَّهُمْ أَحْسَنَ الَّذِي كَانُوا يَعْمَلُونَ (7)
तथा जो लोग ईमान लाये और सदाचार किये, हम अवश्य दूर कर देंगे उनसे उनकी बुराईयाँ तथा उन्हें प्रतिफल देंगे उनके उत्तम कर्मों का।
وَوَصَّيْنَا الْإِنسَانَ بِوَالِدَيْهِ حُسْنًا ۖ وَإِن جَاهَدَاكَ لِتُشْرِكَ بِي مَا لَيْسَ لَكَ بِهِ عِلْمٌ فَلَا تُطِعْهُمَا ۚ إِلَيَّ مَرْجِعُكُمْ فَأُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمْ تَعْمَلُونَ (8)
और हमने निर्देश दिया मनुष्य को अपने माता-पिता के साथ उपकार करने[1] का और यदि दोनों दबाव डालें तुमपर कि तुम साझी बनाओ मेरे साथ उस चीज़ को, जिसका तुमको ज्ञान नहीं, तो उन दोनों की बात न मानो।[2] मेरी ओर ही तुम्हें फिरकर आना है, फिर मैं तुम्हें सूचित कर दूँगा उस कर्म से, जो तुम करते रहे हो।
وَالَّذِينَ آمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ لَنُدْخِلَنَّهُمْ فِي الصَّالِحِينَ (9)
और जो ईमान लाये तथा सदाचार किये, हम उन्हें अवश्य सम्मिलित कर देंगे सदाचारियों में।
وَمِنَ النَّاسِ مَن يَقُولُ آمَنَّا بِاللَّهِ فَإِذَا أُوذِيَ فِي اللَّهِ جَعَلَ فِتْنَةَ النَّاسِ كَعَذَابِ اللَّهِ وَلَئِن جَاءَ نَصْرٌ مِّن رَّبِّكَ لَيَقُولُنَّ إِنَّا كُنَّا مَعَكُمْ ۚ أَوَلَيْسَ اللَّهُ بِأَعْلَمَ بِمَا فِي صُدُورِ الْعَالَمِينَ (10)
और लोगों में वे (भी) हैं, जो कहते हैं कि हम ईमान लाये अल्लाह पर। फिर जब सताये गये अल्लाह के बारे में, तो समझ लिया लोगों की परीक्षा को अल्लाह की यातना के समान। और यदि आ जाये कोई सहायता आपके पालनहार की ओर से, तो अवश्य कहेंगे कि हम तुम्हारे साथ थे। तो क्या अल्लाह भली-भाँति अवगत नहीं है उससे, जो संसार वासियों के दिलों में हैं
وَلَيَعْلَمَنَّ اللَّهُ الَّذِينَ آمَنُوا وَلَيَعْلَمَنَّ الْمُنَافِقِينَ (11)
और अल्लाह अवश्य जान लेगा उन्हें जो ईमान लाये हैं तथा अवश्य जान लेगा द्विधावादियों[1] को।
وَقَالَ الَّذِينَ كَفَرُوا لِلَّذِينَ آمَنُوا اتَّبِعُوا سَبِيلَنَا وَلْنَحْمِلْ خَطَايَاكُمْ وَمَا هُم بِحَامِلِينَ مِنْ خَطَايَاهُم مِّن شَيْءٍ ۖ إِنَّهُمْ لَكَاذِبُونَ (12)
और कहा काफ़िरों ने उनसे जो ईमान लाये हैं: अनुसरण करो हमारे पथ का और हम भार ले लेंगे तुम्हारे पापों का, जबकि वे भार लेने वाले नहीं हैं उनके पापों का कुछ भी, वास्तव में, वे झूठे हैं।
وَلَيَحْمِلُنَّ أَثْقَالَهُمْ وَأَثْقَالًا مَّعَ أَثْقَالِهِمْ ۖ وَلَيُسْأَلُنَّ يَوْمَ الْقِيَامَةِ عَمَّا كَانُوا يَفْتَرُونَ (13)
और वे अवश्य प्रभारी होंगे अपने बोझों के और कुछ[1] (अन्य) बोझों के अपने बोझों के साथ और उनसे अवश्य प्रश्न किया जायेगा, प्रलय के दिन, उस झूठ के बारे में, जो वे घड़ते रहे।
وَلَقَدْ أَرْسَلْنَا نُوحًا إِلَىٰ قَوْمِهِ فَلَبِثَ فِيهِمْ أَلْفَ سَنَةٍ إِلَّا خَمْسِينَ عَامًا فَأَخَذَهُمُ الطُّوفَانُ وَهُمْ ظَالِمُونَ (14)
तथा हम[1] ने भेजा नूह़ को उसकी जाति की ओर, तो वह रहा उनमें हज़ार वर्ष किन्तु पचास[2] कर्ष, फिर उन्हें पकड़ लिया तूफ़ान ने तथा वे अत्याचारी थे।
فَأَنجَيْنَاهُ وَأَصْحَابَ السَّفِينَةِ وَجَعَلْنَاهَا آيَةً لِّلْعَالَمِينَ (15)
तो हमने बचा लिया उसे और नाव वालों को और बना दिया उसे एक निशानी (शिक्षा), विश्व वासियों के लिए।
وَإِبْرَاهِيمَ إِذْ قَالَ لِقَوْمِهِ اعْبُدُوا اللَّهَ وَاتَّقُوهُ ۖ ذَٰلِكُمْ خَيْرٌ لَّكُمْ إِن كُنتُمْ تَعْلَمُونَ (16)
तथा इब्राहीम को जब उसने अपनी जाति से कहाः इबादत (वंदना) करो अल्लाह की तथा उससे डरो, ये तुम्हारे लिए उत्तम है, यदि तुम जोनो।
إِنَّمَا تَعْبُدُونَ مِن دُونِ اللَّهِ أَوْثَانًا وَتَخْلُقُونَ إِفْكًا ۚ إِنَّ الَّذِينَ تَعْبُدُونَ مِن دُونِ اللَّهِ لَا يَمْلِكُونَ لَكُمْ رِزْقًا فَابْتَغُوا عِندَ اللَّهِ الرِّزْقَ وَاعْبُدُوهُ وَاشْكُرُوا لَهُ ۖ إِلَيْهِ تُرْجَعُونَ (17)
तुम तो अल्लाह के सिवा बस उनकी वंदना कर रहे हो, जो मूर्तियाँ हैं तथा तुम झूठ घड़ रहे हो, वास्तव में, जिन्हें तुम पूज रहे हो अल्लाह के सिवा, वे नहीं अधिकार रखते हैं तुम्हारे लिए जीविका देने का। अतः, खोज करो अल्लाह के पास जीविका की तथा इबादत (वंदना) करो उसकी और कृतज्ञ बनो उसके, उसी की ओर तुम फेरे जाओगे।
وَإِن تُكَذِّبُوا فَقَدْ كَذَّبَ أُمَمٌ مِّن قَبْلِكُمْ ۖ وَمَا عَلَى الرَّسُولِ إِلَّا الْبَلَاغُ الْمُبِينُ (18)
और यदि तुम झुठलाओ, तो झुठलाया है बहुत-से समुदायों ने तुमसे पहले और नहीं है रसूल[1] का दायित्व, परन्तु खुला उपदेश पहुँचा देना।
أَوَلَمْ يَرَوْا كَيْفَ يُبْدِئُ اللَّهُ الْخَلْقَ ثُمَّ يُعِيدُهُ ۚ إِنَّ ذَٰلِكَ عَلَى اللَّهِ يَسِيرٌ (19)
क्या उन्होंने नहीं दखा कि अल्लाह ही उत्पत्ति का आरंभ करता है, फिर उसे दुहरायेगा?[1] निश्चय ये अल्लाह पर अति सरल है।
قُلْ سِيرُوا فِي الْأَرْضِ فَانظُرُوا كَيْفَ بَدَأَ الْخَلْقَ ۚ ثُمَّ اللَّهُ يُنشِئُ النَّشْأَةَ الْآخِرَةَ ۚ إِنَّ اللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ (20)
(हे नबी!) कह दें कि चलो-फिरो धरती में, फिर देखो कि उसने कैसे उतपत्ति का आरंभ किया है? फिर अल्लाह दूसरी बार भी उत्पन्न[1] करेगा, वास्तव में, अल्लाह जो चाहे, कर सकता है।
يُعَذِّبُ مَن يَشَاءُ وَيَرْحَمُ مَن يَشَاءُ ۖ وَإِلَيْهِ تُقْلَبُونَ (21)
वह यातना देगा, जिसे चाहेगा तथा दया करेगा, जिसपर चाहेगा और उसी की ओर तुम फेरे जाओगे।
وَمَا أَنتُم بِمُعْجِزِينَ فِي الْأَرْضِ وَلَا فِي السَّمَاءِ ۖ وَمَا لَكُم مِّن دُونِ اللَّهِ مِن وَلِيٍّ وَلَا نَصِيرٍ (22)
तुम उसे विवश करने वाले नहीं हो, न धरती में, न आकाश में तथा नहीं है तुमहारा उसके सिवा कोई संरक्षक और न सहायक।
وَالَّذِينَ كَفَرُوا بِآيَاتِ اللَّهِ وَلِقَائِهِ أُولَٰئِكَ يَئِسُوا مِن رَّحْمَتِي وَأُولَٰئِكَ لَهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٌ (23)
तथा जिन लोगों ने इन्कार किया अल्लाह की आयतों और उससे मिलने का, वही निराश हो गये हैं मेरी दया से और उन्हीं के लिए दुःखदायी यातना है।
فَمَا كَانَ جَوَابَ قَوْمِهِ إِلَّا أَن قَالُوا اقْتُلُوهُ أَوْ حَرِّقُوهُ فَأَنجَاهُ اللَّهُ مِنَ النَّارِ ۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَآيَاتٍ لِّقَوْمٍ يُؤْمِنُونَ (24)
तो उस (इब्राहीम) की जाति का उत्तर बस यही था कि उन्होंने कहाः इसे वध कर दो या इसे जला दो, तो अल्लाह ने उसे बचा लिया अग्नि से। वास्तव में, इसमें बड़ी निशानियाँ हैं उनके लिए, जो ईमान रखते हैं।
وَقَالَ إِنَّمَا اتَّخَذْتُم مِّن دُونِ اللَّهِ أَوْثَانًا مَّوَدَّةَ بَيْنِكُمْ فِي الْحَيَاةِ الدُّنْيَا ۖ ثُمَّ يَوْمَ الْقِيَامَةِ يَكْفُرُ بَعْضُكُم بِبَعْضٍ وَيَلْعَنُ بَعْضُكُم بَعْضًا وَمَأْوَاكُمُ النَّارُ وَمَا لَكُم مِّن نَّاصِرِينَ (25)
और कहाः तुमने तो अल्लाह को छोड़कर मूर्तियों को प्रेम का साधन बना लिया है अपने बीच, सांसारिक जीवन में, फिर प्रलय के दिन तुम एक-दूसरे का इन्कार करोगे तथा धिक्करोगे एक-दूसरे को और तुम्हारा आवास नरक होगा और नहीं होगा तुम्हारा कोई सहायक।
۞ فَآمَنَ لَهُ لُوطٌ ۘ وَقَالَ إِنِّي مُهَاجِرٌ إِلَىٰ رَبِّي ۖ إِنَّهُ هُوَ الْعَزِيزُ الْحَكِيمُ (26)
तो मान लिया उसे (इब्राहीम को) लूत[1] ने और इब्राहीम ने कहाः मैं हिजरत कर रहा हूँ अपने पालनहार[2] की ओर। निश्य वही प्रबल तथा गुणी है।
وَوَهَبْنَا لَهُ إِسْحَاقَ وَيَعْقُوبَ وَجَعَلْنَا فِي ذُرِّيَّتِهِ النُّبُوَّةَ وَالْكِتَابَ وَآتَيْنَاهُ أَجْرَهُ فِي الدُّنْيَا ۖ وَإِنَّهُ فِي الْآخِرَةِ لَمِنَ الصَّالِحِينَ (27)
और हमने प्रदान किया उसे इस्ह़ाक़ तथा याक़ूब तथा हमने रख दी उसकी संतान में नबूवत तथा पुस्तक और हमने प्रदान किया उसे उसका प्रतिफल संसार में और निश्य वह परलोक में सदाचारियों में होगा।
وَلُوطًا إِذْ قَالَ لِقَوْمِهِ إِنَّكُمْ لَتَأْتُونَ الْفَاحِشَةَ مَا سَبَقَكُم بِهَا مِنْ أَحَدٍ مِّنَ الْعَالَمِينَ (28)
तथा लूत को (भेजा)। जब उसने अपनी जाति से कहाः तुम तो वह निर्लज्जा कर रहे हो, जो तुमसे पहले नहीं किया है किसी ने संसार वासियों में से।
أَئِنَّكُمْ لَتَأْتُونَ الرِّجَالَ وَتَقْطَعُونَ السَّبِيلَ وَتَأْتُونَ فِي نَادِيكُمُ الْمُنكَرَ ۖ فَمَا كَانَ جَوَابَ قَوْمِهِ إِلَّا أَن قَالُوا ائْتِنَا بِعَذَابِ اللَّهِ إِن كُنتَ مِنَ الصَّادِقِينَ (29)
क्या तुम पुरुषों के पास जाते हो और डकैती करते हो तथा अपनी सभाओं में निर्लज्जा के कार्य करते हो? तो नहीं था उसकी जाति का उत्तर इसके अतिरिक्त कि उन्होंने कहाः तू ले आ हमारे पास अल्लाह की यातना, यदि तू सचों में से है।
قَالَ رَبِّ انصُرْنِي عَلَى الْقَوْمِ الْمُفْسِدِينَ (30)
लूत ने कहाः मेरे पालनहार! मेरी सहायता कर, उपद्रवी जाति पर।
وَلَمَّا جَاءَتْ رُسُلُنَا إِبْرَاهِيمَ بِالْبُشْرَىٰ قَالُوا إِنَّا مُهْلِكُو أَهْلِ هَٰذِهِ الْقَرْيَةِ ۖ إِنَّ أَهْلَهَا كَانُوا ظَالِمِينَ (31)
और जब आये हमारे भेजे हुए (फ़रिश्ते) इब्राहीम के पास शुभ सूचना लेकर, तो उन्होंने कहाः हम विनाश करने वाले हैं इस बस्ती के वासियों का। वस्तुतः, इसके वासी अत्याचारी हैं।
قَالَ إِنَّ فِيهَا لُوطًا ۚ قَالُوا نَحْنُ أَعْلَمُ بِمَن فِيهَا ۖ لَنُنَجِّيَنَّهُ وَأَهْلَهُ إِلَّا امْرَأَتَهُ كَانَتْ مِنَ الْغَابِرِينَ (32)
इब्राहीम ने कहाः उसमें तो लूत है। उन्होंने कहाः हम भली-भाँति जानने वाले हैं, जो उसमें है। हम अवश्य बचा लेंगे उसे और उसके परिवार को, उसकी पत्नि के सिवा, वह पीछे रह जाने वालों में थी।
وَلَمَّا أَن جَاءَتْ رُسُلُنَا لُوطًا سِيءَ بِهِمْ وَضَاقَ بِهِمْ ذَرْعًا وَقَالُوا لَا تَخَفْ وَلَا تَحْزَنْ ۖ إِنَّا مُنَجُّوكَ وَأَهْلَكَ إِلَّا امْرَأَتَكَ كَانَتْ مِنَ الْغَابِرِينَ (33)
और जब आ गये हमारे भेजे हुए लूत के पास, तो उसे बुरा लगा और वह उदासीन हो गया[1] उनके आने पर और उन्होंने कहाः भय न कर और न उदासीन हो, हम तुझे बचा लेने वाले हैं तथा तेरे परिवार को, परन्तु तेरी पत्नी को, वह पीछो रह जाने वालों में है।
إِنَّا مُنزِلُونَ عَلَىٰ أَهْلِ هَٰذِهِ الْقَرْيَةِ رِجْزًا مِّنَ السَّمَاءِ بِمَا كَانُوا يَفْسُقُونَ (34)
वास्तव में, हम उतारने वाले हैं इस बस्ती के वासियों पर आकाश से यातना, इस कारण कि वे उल्लंघन कर रहे हैं।
وَلَقَد تَّرَكْنَا مِنْهَا آيَةً بَيِّنَةً لِّقَوْمٍ يَعْقِلُونَ (35)
तथा हमने छोड़ दी है उसमें एक खुली निशानी उन लोगों के लिए, जो समझ-बूझ रखते हैं।
وَإِلَىٰ مَدْيَنَ أَخَاهُمْ شُعَيْبًا فَقَالَ يَا قَوْمِ اعْبُدُوا اللَّهَ وَارْجُوا الْيَوْمَ الْآخِرَ وَلَا تَعْثَوْا فِي الْأَرْضِ مُفْسِدِينَ (36)
तथा मद्यन की ओर उनके भाई शुऐब को (भेजा), तो उसने कहाः हे मेरी जाति के लोगो! इबादत (वंदना) करो अल्लाह की तथा आश रखो प्रयल के दिन[1] की और मत फिरो धरती में उपद्रव करते हूए।
فَكَذَّبُوهُ فَأَخَذَتْهُمُ الرَّجْفَةُ فَأَصْبَحُوا فِي دَارِهِمْ جَاثِمِينَ (37)
किन्तु उन्होंने उन्हें झुठला दिया, तो पकड़ लिया उन्हें भूकम्प ने और वह अपने घरों में औंधे पड़े रह गये।
وَعَادًا وَثَمُودَ وَقَد تَّبَيَّنَ لَكُم مِّن مَّسَاكِنِهِمْ ۖ وَزَيَّنَ لَهُمُ الشَّيْطَانُ أَعْمَالَهُمْ فَصَدَّهُمْ عَنِ السَّبِيلِ وَكَانُوا مُسْتَبْصِرِينَ (38)
तथा आद और समूद का (विनाश किया) और उजागर हैं तुम्हारे लिए उनके घरों के कुछ अवशेष और शोभनीय बना दिया शैतान ने उनके कर्मों को और रोक दिया उन्हें सुपथ से, जबकि वह समझ-बूझ रखते थे।
وَقَارُونَ وَفِرْعَوْنَ وَهَامَانَ ۖ وَلَقَدْ جَاءَهُم مُّوسَىٰ بِالْبَيِّنَاتِ فَاسْتَكْبَرُوا فِي الْأَرْضِ وَمَا كَانُوا سَابِقِينَ (39)
और क़ारून, फ़िरऔन और हामान का और लाये उनके पास मूसा खुली निशानियाँ, तो उन्होंने अभिमान किया और वे हमसे आगे[1] होने वाले न थे।
فَكُلًّا أَخَذْنَا بِذَنبِهِ ۖ فَمِنْهُم مَّنْ أَرْسَلْنَا عَلَيْهِ حَاصِبًا وَمِنْهُم مَّنْ أَخَذَتْهُ الصَّيْحَةُ وَمِنْهُم مَّنْ خَسَفْنَا بِهِ الْأَرْضَ وَمِنْهُم مَّنْ أَغْرَقْنَا ۚ وَمَا كَانَ اللَّهُ لِيَظْلِمَهُمْ وَلَٰكِن كَانُوا أَنفُسَهُمْ يَظْلِمُونَ (40)
तो प्रत्येक को हमने पकड़ लिया उसके पाप के कारण, तो इनमें से कुछ पर पत्थर बरसाये[1] और उनमें से कुछ को पकड़ा[2] कड़ी ध्वनि ने तथा कुछ को धंसा दिया धरती में[3] और कुछ को डुबो[4] दिया तथा नहीं था अल्लाह कि उनपर अत्याचार करता, परन्तु वे स्वयं अपने ऊपर अत्याचार कर रहे थे।
مَثَلُ الَّذِينَ اتَّخَذُوا مِن دُونِ اللَّهِ أَوْلِيَاءَ كَمَثَلِ الْعَنكَبُوتِ اتَّخَذَتْ بَيْتًا ۖ وَإِنَّ أَوْهَنَ الْبُيُوتِ لَبَيْتُ الْعَنكَبُوتِ ۖ لَوْ كَانُوا يَعْلَمُونَ (41)
उनका उदाहरण जिन्होंने बना लिए अल्लाह को छोड़कर संरक्षक, मकड़ी जैसा है, जिसने एक घर बनाया और वास्तव में, घरों में सबसे अधिक निर्बल घर[1] मकड़ी का है, यदि वे जानते।
إِنَّ اللَّهَ يَعْلَمُ مَا يَدْعُونَ مِن دُونِهِ مِن شَيْءٍ ۚ وَهُوَ الْعَزِيزُ الْحَكِيمُ (42)
वास्तव में, अल्लाह जानता है[1] कि वे जिसे पुकारते हैं, अल्लाह को छोड़कर वे कुछ नहीं हैं और वही प्रबल, गुणी (प्रवीण) है।
وَتِلْكَ الْأَمْثَالُ نَضْرِبُهَا لِلنَّاسِ ۖ وَمَا يَعْقِلُهَا إِلَّا الْعَالِمُونَ (43)
और ये उदाहरण हम लोगों के लिए दे रहे हैं और इसे नहीं समझेंगे, परन्तु ज्ञानी लोग (ही)।
خَلَقَ اللَّهُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضَ بِالْحَقِّ ۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَآيَةً لِّلْمُؤْمِنِينَ (44)
उत्पत्ति की है अल्लाह ने आकाशों तथा धरती की सत्य के साथ। वास्तव में, इसमें एक बड़ी निशानी (लक्षण) है, ईमान लाने वालों के[1] लिए।
اتْلُ مَا أُوحِيَ إِلَيْكَ مِنَ الْكِتَابِ وَأَقِمِ الصَّلَاةَ ۖ إِنَّ الصَّلَاةَ تَنْهَىٰ عَنِ الْفَحْشَاءِ وَالْمُنكَرِ ۗ وَلَذِكْرُ اللَّهِ أَكْبَرُ ۗ وَاللَّهُ يَعْلَمُ مَا تَصْنَعُونَ (45)
आप उस पुस्तक को पढ़ें, जो वह़्यी (प्रकाशना) की गयी है आपकी ओर तथा स्थापना करें नमाज़ की। वास्तव में, नमाज़ रोकती है निर्लज्जा तथा दुराचार से और अल्लाह का स्मरण ही सर्व महान है और अल्लाह जानता है, जो कुछ तुम करते[1] हो।
۞ وَلَا تُجَادِلُوا أَهْلَ الْكِتَابِ إِلَّا بِالَّتِي هِيَ أَحْسَنُ إِلَّا الَّذِينَ ظَلَمُوا مِنْهُمْ ۖ وَقُولُوا آمَنَّا بِالَّذِي أُنزِلَ إِلَيْنَا وَأُنزِلَ إِلَيْكُمْ وَإِلَٰهُنَا وَإِلَٰهُكُمْ وَاحِدٌ وَنَحْنُ لَهُ مُسْلِمُونَ (46)
और तुम वाद-विवाद न करो अह्ले किताब[1] से, परन्तु ऐसी विधि से, जो सर्वोत्तम हो, उनके सिवा, जिन्होंने अत्याचार किया है उनमें से तथा तुम कहो कि हम ईमान लाये उसपर, जो हमारी ओर उतारा गया और उतारा गया तुम्हारी ओर तथा हमारा पूज्य और तुम्हारा पूज्य एक ही[2] है और हम उसी के आज्ञाकारी हैं।
وَكَذَٰلِكَ أَنزَلْنَا إِلَيْكَ الْكِتَابَ ۚ فَالَّذِينَ آتَيْنَاهُمُ الْكِتَابَ يُؤْمِنُونَ بِهِ ۖ وَمِنْ هَٰؤُلَاءِ مَن يُؤْمِنُ بِهِ ۚ وَمَا يَجْحَدُ بِآيَاتِنَا إِلَّا الْكَافِرُونَ (47)
और इसी प्रकार, हमने उतारी है आपकी ओर ये पुस्तक, तो जिन्हें हमने ये पुस्तक प्रदान की है, वे इस (क़ुर्आन) पर ईमान लाते[1] हैं और इनमें से (भी) कुछ[2] इस (क़ुर्आन) पर ईमान ला रहे हैं और हमारी आयतों को काफ़िर ही नहीं मानते हैं।
وَمَا كُنتَ تَتْلُو مِن قَبْلِهِ مِن كِتَابٍ وَلَا تَخُطُّهُ بِيَمِينِكَ ۖ إِذًا لَّارْتَابَ الْمُبْطِلُونَ (48)
और आप इससे पूर्व न कोई पुस्तक पढ़ सकते थे और न अपने हाथ से लिख सकते थे। यदि ऐसा होता, तो झूठे लोग संदेह[1] में पड़ सकते थे।
بَلْ هُوَ آيَاتٌ بَيِّنَاتٌ فِي صُدُورِ الَّذِينَ أُوتُوا الْعِلْمَ ۚ وَمَا يَجْحَدُ بِآيَاتِنَا إِلَّا الظَّالِمُونَ (49)
बल्कि ये खुली आयतें हैं, जो उनके दिलों में सुरक्षित हैं, जिन्हें ज्ञान दिया गया है तथा हमारी आयतों (क़ुर्आन) का इन्कार[1] अत्याचारी ही करते हैं।
وَقَالُوا لَوْلَا أُنزِلَ عَلَيْهِ آيَاتٌ مِّن رَّبِّهِ ۖ قُلْ إِنَّمَا الْآيَاتُ عِندَ اللَّهِ وَإِنَّمَا أَنَا نَذِيرٌ مُّبِينٌ (50)
तथा (अत्याचारियों) ने कहाः क्यों नहीं उतारी गयीं आपपर निशानियाँ आपके पालनहार की ओर से? आप कह दें कि निशानियाँ तो अल्लाह के पास[1] हैं और मैं तो खुला सावधान करने वाला हूँ।
أَوَلَمْ يَكْفِهِمْ أَنَّا أَنزَلْنَا عَلَيْكَ الْكِتَابَ يُتْلَىٰ عَلَيْهِمْ ۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَرَحْمَةً وَذِكْرَىٰ لِقَوْمٍ يُؤْمِنُونَ (51)
क्या उन्हें पर्याप्त नहीं कि हमने उतारी है आपपर ये पुस्तक (क़ुर्आन) जो पढ़ी जा रही है उनपर। वास्तव में, इसमें दया और शिक्षा है, उन लोगों के लिए जो ईमान लाते हैं।
قُلْ كَفَىٰ بِاللَّهِ بَيْنِي وَبَيْنَكُمْ شَهِيدًا ۖ يَعْلَمُ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ ۗ وَالَّذِينَ آمَنُوا بِالْبَاطِلِ وَكَفَرُوا بِاللَّهِ أُولَٰئِكَ هُمُ الْخَاسِرُونَ (52)
आप कह दें: पर्याप्त है अल्लाह मेरे तथा तुम्हारे बीच साक्षी।[1] वह जानता है जो आकाशों तथा धरती में है और जिन लोगों ने मान लिया है असत्य को और अल्लाह से कुफ़्र किया है वही विनाश होने वाले हैं।
وَيَسْتَعْجِلُونَكَ بِالْعَذَابِ ۚ وَلَوْلَا أَجَلٌ مُّسَمًّى لَّجَاءَهُمُ الْعَذَابُ وَلَيَأْتِيَنَّهُم بَغْتَةً وَهُمْ لَا يَشْعُرُونَ (53)
और वे[1] आपसे शीघ्र माँग कर रहे हैं यातना की और यदि एक निर्धारित समय न होता, तो आ जाती उनके पास यातना और अवश्य आयेगी उनके पास अचानक और उन्हें ज्ञान (भी) न होगा।
يَسْتَعْجِلُونَكَ بِالْعَذَابِ وَإِنَّ جَهَنَّمَ لَمُحِيطَةٌ بِالْكَافِرِينَ (54)
वे शीघ्र माँग[1] कर रहै हैं आपसे यातना की और निश्चय नरक घेरने वाली है काफ़िरों[2] को।
يَوْمَ يَغْشَاهُمُ الْعَذَابُ مِن فَوْقِهِمْ وَمِن تَحْتِ أَرْجُلِهِمْ وَيَقُولُ ذُوقُوا مَا كُنتُمْ تَعْمَلُونَ (55)
जिस दिन छा जायेगी उनपर यातना, उनके ऊपर से तथा उनके पैरों के नीचे से और अल्लाह कहेगाः चखो, जो कुछ तुम कर रहे थे।
يَا عِبَادِيَ الَّذِينَ آمَنُوا إِنَّ أَرْضِي وَاسِعَةٌ فَإِيَّايَ فَاعْبُدُونِ (56)
हे मेरे भक्तो जो ईमान लाये हो! वास्तव में, मेरी धरती विशाल है, अतः, तुम मेरी ही इबादत (वंदना)[1] करो।
كُلُّ نَفْسٍ ذَائِقَةُ الْمَوْتِ ۖ ثُمَّ إِلَيْنَا تُرْجَعُونَ (57)
प्रत्येक प्राणी मौत का स्वाद चखने वाला है, फिर तुम हमारी ही ओर फेरे[1] जाओगे।
وَالَّذِينَ آمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ لَنُبَوِّئَنَّهُم مِّنَ الْجَنَّةِ غُرَفًا تَجْرِي مِن تَحْتِهَا الْأَنْهَارُ خَالِدِينَ فِيهَا ۚ نِعْمَ أَجْرُ الْعَامِلِينَ (58)
तथा जो ईमान लाये और सदाचार किये, तो हम अवश्य उन्हें स्थान देंगे स्वर्ग के उच्च भवनों में, प्रवाहित होंगी जिनमें नहरें, वे सदावासी होंगे उनमें, तो क्या ही उत्तम है कर्म करने वालों का प्रतिफल
الَّذِينَ صَبَرُوا وَعَلَىٰ رَبِّهِمْ يَتَوَكَّلُونَ (59)
जिन लोगों ने सहन किया तथा वे अपने पालनहार ही पर भरोसा करते हैं।
وَكَأَيِّن مِّن دَابَّةٍ لَّا تَحْمِلُ رِزْقَهَا اللَّهُ يَرْزُقُهَا وَإِيَّاكُمْ ۚ وَهُوَ السَّمِيعُ الْعَلِيمُ (60)
कितने ही जीव हैं, जो नहीं लादे फिरते[1] अपनी जीविका, अल्लाह ही उन्हें जीविका प्रदान करता है तथा तुम्हें! और वह सब कुछ सुनने-जनने वाला है।
وَلَئِن سَأَلْتَهُم مَّنْ خَلَقَ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضَ وَسَخَّرَ الشَّمْسَ وَالْقَمَرَ لَيَقُولُنَّ اللَّهُ ۖ فَأَنَّىٰ يُؤْفَكُونَ (61)
और यदि आप उनसे प्रश्न करें कि किसने उत्पत्ति की है आकाशों तथा धरती की और (किसने) वश में कर रखा है सूर्य तथा चाँद को? तो वे अवश्य कहेंगे कि अल्लाह ने। तो फिर वे कहाँ बहके जा रहे हैं
اللَّهُ يَبْسُطُ الرِّزْقَ لِمَن يَشَاءُ مِنْ عِبَادِهِ وَيَقْدِرُ لَهُ ۚ إِنَّ اللَّهَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمٌ (62)
अल्लाह ही फैलाता है जीविका को जिसके लिए चाहता है अपने भक्तों में से और नापकर देता है उसके लिए। वास्तव में, अल्लाह प्रत्येक वस्तु का अति ज्ञानी है।
وَلَئِن سَأَلْتَهُم مَّن نَّزَّلَ مِنَ السَّمَاءِ مَاءً فَأَحْيَا بِهِ الْأَرْضَ مِن بَعْدِ مَوْتِهَا لَيَقُولُنَّ اللَّهُ ۚ قُلِ الْحَمْدُ لِلَّهِ ۚ بَلْ أَكْثَرُهُمْ لَا يَعْقِلُونَ (63)
और यदि आप उनसे प्रश्न करें कि किसने उतारा है आकाश से जल, फिर उसके द्वारा जीवित किया है धरती को, उसके मरण के पश्चात्? तो वे अवश्य कहेंगे कि अल्लाह ने। आप कह दें कि सब प्रशंसा अल्लाह के लिए है। किन्तु उनमें से अधिक्तर लोग समझते नहीं।
وَمَا هَٰذِهِ الْحَيَاةُ الدُّنْيَا إِلَّا لَهْوٌ وَلَعِبٌ ۚ وَإِنَّ الدَّارَ الْآخِرَةَ لَهِيَ الْحَيَوَانُ ۚ لَوْ كَانُوا يَعْلَمُونَ (64)
और नहीं है ये सांसारिक[1] जीवन, किन्तु मनोरंजन और खेल और परलोक का घर ही वास्तविक जीवन है। क्या ही अच्छा होता, यदि वे जानते
فَإِذَا رَكِبُوا فِي الْفُلْكِ دَعَوُا اللَّهَ مُخْلِصِينَ لَهُ الدِّينَ فَلَمَّا نَجَّاهُمْ إِلَى الْبَرِّ إِذَا هُمْ يُشْرِكُونَ (65)
और जब वे नाव पर सवार होते हैं, तो अल्लाह के लिए धर्म को शुध्द करके उसे पुकारते हैं। फिर जब वह बचा लाता है उन्हें थल तक, तो फिर शिर्क करने लगते हैं।
لِيَكْفُرُوا بِمَا آتَيْنَاهُمْ وَلِيَتَمَتَّعُوا ۖ فَسَوْفَ يَعْلَمُونَ (66)
ताकि वे कुफ़्र करें उसके साथ, जो हमने उन्हें प्रदान किया है और ताकि आनन्द लेते रहें, तो शीघ्र ही इन्हें ज्ञान हो जायेगा।
أَوَلَمْ يَرَوْا أَنَّا جَعَلْنَا حَرَمًا آمِنًا وَيُتَخَطَّفُ النَّاسُ مِنْ حَوْلِهِمْ ۚ أَفَبِالْبَاطِلِ يُؤْمِنُونَ وَبِنِعْمَةِ اللَّهِ يَكْفُرُونَ (67)
क्या उन्होंने नहीं देखा कि हमने बना दिया है ह़रम (मक्का) को शान्ति स्थल, जबकि उचक लिए जाते हैं लोग उनके आस-पास से? तो क्या वे असत्य ही को मानते हैं और अल्लाह के पुरस्कार को नहीं मानते
وَمَنْ أَظْلَمُ مِمَّنِ افْتَرَىٰ عَلَى اللَّهِ كَذِبًا أَوْ كَذَّبَ بِالْحَقِّ لَمَّا جَاءَهُ ۚ أَلَيْسَ فِي جَهَنَّمَ مَثْوًى لِّلْكَافِرِينَ (68)
तथा कौन अधिक अत्याचारी होगा उससे, जो अल्लाह पर झूठ घड़े या झूठ कहे सच को, जब उसके पास आ जाये, तो क्या नहीं होगा नरक में आवास काफ़िरों को
وَالَّذِينَ جَاهَدُوا فِينَا لَنَهْدِيَنَّهُمْ سُبُلَنَا ۚ وَإِنَّ اللَّهَ لَمَعَ الْمُحْسِنِينَ (69)
तथा जिन्होंने हमारी राह में प्रयास किया, तो हम अवश्य दिखा[1] देंगे उन्हें अपनी राह और निश्चय अल्लाह सदाचारियों के साथ है।
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Surahs from Quran :

1- Fatiha2- Baqarah
3- Al Imran4- Nisa
5- Maidah6- Anam
7- Araf8- Anfal
9- Tawbah10- Yunus
11- Hud12- Yusuf
13- Raad14- Ibrahim
15- Hijr16- Nahl
17- Al Isra18- Kahf
19- Maryam20- TaHa
21- Anbiya22- Hajj
23- Muminun24- An Nur
25- Furqan26- Shuara
27- Naml28- Qasas
29- Ankabut30- Rum
31- Luqman32- Sajdah
33- Ahzab34- Saba
35- Fatir36- Yasin
37- Assaaffat38- Sad
39- Zumar40- Ghafir
41- Fussilat42- shura
43- Zukhruf44- Ad Dukhaan
45- Jathiyah46- Ahqaf
47- Muhammad48- Al Fath
49- Hujurat50- Qaf
51- zariyat52- Tur
53- Najm54- Al Qamar
55- Rahman56- Waqiah
57- Hadid58- Mujadilah
59- Al Hashr60- Mumtahina
61- Saff62- Jumuah
63- Munafiqun64- Taghabun
65- Talaq66- Tahrim
67- Mulk68- Qalam
69- Al-Haqqah70- Maarij
71- Nuh72- Jinn
73- Muzammil74- Muddathir
75- Qiyamah76- Insan
77- Mursalat78- An Naba
79- Naziat80- Abasa
81- Takwir82- Infitar
83- Mutaffifin84- Inshiqaq
85- Buruj86- Tariq
87- Al Ala88- Ghashiya
89- Fajr90- Al Balad
91- Shams92- Lail
93- Duha94- Sharh
95- Tin96- Al Alaq
97- Qadr98- Bayyinah
99- Zalzalah100- Adiyat
101- Qariah102- Takathur
103- Al Asr104- Humazah
105- Al Fil106- Quraysh
107- Maun108- Kawthar
109- Kafirun110- Nasr
111- Masad112- Ikhlas
113- Falaq114- An Nas