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سورة الأحزاب باللغة الهندية

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ترجمة معاني سورة الأحزاب باللغة الهندية - Hindi

القرآن باللغة الهندية - سورة الأحزاب مترجمة إلى اللغة الهندية، Surah Ahzab in Hindi. نوفر ترجمة دقيقة سورة الأحزاب باللغة الهندية - Hindi, الآيات 73 - رقم السورة 33 - الصفحة 418.

بسم الله الرحمن الرحيم

يَا أَيُّهَا النَّبِيُّ اتَّقِ اللَّهَ وَلَا تُطِعِ الْكَافِرِينَ وَالْمُنَافِقِينَ ۗ إِنَّ اللَّهَ كَانَ عَلِيمًا حَكِيمًا (1)
हे नबी! अल्लाह से डरो और काफ़िरों और मुनाफ़िक़ों की आज्ञापालन न करो। वास्तव में, अल्लाह ह़िक्मत वाला, सब कुछ जानने[1] वाला है।
وَاتَّبِعْ مَا يُوحَىٰ إِلَيْكَ مِن رَّبِّكَ ۚ إِنَّ اللَّهَ كَانَ بِمَا تَعْمَلُونَ خَبِيرًا (2)
तथा पालन करो उसका, जो वह़्यी (प्रकाशना) की जा रही है आपकी ओर आपके पालनहार की ओर से। निश्चय अल्लाह जो तुम कर रहे हो, उससे सूचित है।
وَتَوَكَّلْ عَلَى اللَّهِ ۚ وَكَفَىٰ بِاللَّهِ وَكِيلًا (3)
और आप भरोसा करें अल्लाह पर तथा अल्लाह प्रयाप्त है, रक्षा करने वाला।
مَّا جَعَلَ اللَّهُ لِرَجُلٍ مِّن قَلْبَيْنِ فِي جَوْفِهِ ۚ وَمَا جَعَلَ أَزْوَاجَكُمُ اللَّائِي تُظَاهِرُونَ مِنْهُنَّ أُمَّهَاتِكُمْ ۚ وَمَا جَعَلَ أَدْعِيَاءَكُمْ أَبْنَاءَكُمْ ۚ ذَٰلِكُمْ قَوْلُكُم بِأَفْوَاهِكُمْ ۖ وَاللَّهُ يَقُولُ الْحَقَّ وَهُوَ يَهْدِي السَّبِيلَ (4)
और नहीं रखे हैं अल्लाह ने किसी को, दो दिल, उसके भीतर और नहीं बनाया है तुम्हारी पत्नियों को, जिनसे तुम ज़िहार[1] करते हो, उनमें से, तुम्हारी मातायें तथा नहीं बनाया है तुम्हारे मुँह बोले पुत्रों को तुम्हारा पुत्र। ये तुम्हारी मौखिक बाते हैं और अल्लाह सच कहता है तथा वही सुपथ दिखाता है।
ادْعُوهُمْ لِآبَائِهِمْ هُوَ أَقْسَطُ عِندَ اللَّهِ ۚ فَإِن لَّمْ تَعْلَمُوا آبَاءَهُمْ فَإِخْوَانُكُمْ فِي الدِّينِ وَمَوَالِيكُمْ ۚ وَلَيْسَ عَلَيْكُمْ جُنَاحٌ فِيمَا أَخْطَأْتُم بِهِ وَلَٰكِن مَّا تَعَمَّدَتْ قُلُوبُكُمْ ۚ وَكَانَ اللَّهُ غَفُورًا رَّحِيمًا (5)
उन्हें पुकारो, उनके बापों से संबन्धित करके, ये अधिक न्याय की बात है अल्लाह के समीप और यदि तुम नहीं जानते उनके बापों को, तो वे तुम्हारे धर्म बन्धु तथा मित्र हैं और तुम्हारे ऊपर कोई दोष नहीं है उसमें, जो तुमसे चूक हुई है, परन्तु (उसमें है) जिसका निश्चय तुम्हारे दिल करें तथा अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान् है।
النَّبِيُّ أَوْلَىٰ بِالْمُؤْمِنِينَ مِنْ أَنفُسِهِمْ ۖ وَأَزْوَاجُهُ أُمَّهَاتُهُمْ ۗ وَأُولُو الْأَرْحَامِ بَعْضُهُمْ أَوْلَىٰ بِبَعْضٍ فِي كِتَابِ اللَّهِ مِنَ الْمُؤْمِنِينَ وَالْمُهَاجِرِينَ إِلَّا أَن تَفْعَلُوا إِلَىٰ أَوْلِيَائِكُم مَّعْرُوفًا ۚ كَانَ ذَٰلِكَ فِي الْكِتَابِ مَسْطُورًا (6)
नबी[1] अधिक समीप (प्रिय) है ईमान वालों से, उनके प्राणों से और आपकी पत्नियाँ[2] उनकी मातायें हैं और समीपवर्ती संबन्धी एक-दूसरे से अधिक समीप[3] हैं, अल्लाह के लेख में ईमान वालों और मुहाजिरों से। परन्तु, ये कि करते रहो अपने मित्रों के साथ भलाई और ये पुस्तक में लिखा हूआ है।
وَإِذْ أَخَذْنَا مِنَ النَّبِيِّينَ مِيثَاقَهُمْ وَمِنكَ وَمِن نُّوحٍ وَإِبْرَاهِيمَ وَمُوسَىٰ وَعِيسَى ابْنِ مَرْيَمَ ۖ وَأَخَذْنَا مِنْهُم مِّيثَاقًا غَلِيظًا (7)
तथा (याद करो) जब हमने नबियों से उनका वचन[1] लिया तथा आपसे और नूह़, इब्रीम, मूसा, मर्यम के पुत्र ईसा से और हमने लिया उनसे दृढ़ वचन।
لِّيَسْأَلَ الصَّادِقِينَ عَن صِدْقِهِمْ ۚ وَأَعَدَّ لِلْكَافِرِينَ عَذَابًا أَلِيمًا (8)
ताकि वह प्रश्न[1] करे सचों से उनके सच के संबन्ध में तथा तैयार की है काफ़िरों के लिए दुःखदायी यातना।
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا اذْكُرُوا نِعْمَةَ اللَّهِ عَلَيْكُمْ إِذْ جَاءَتْكُمْ جُنُودٌ فَأَرْسَلْنَا عَلَيْهِمْ رِيحًا وَجُنُودًا لَّمْ تَرَوْهَا ۚ وَكَانَ اللَّهُ بِمَا تَعْمَلُونَ بَصِيرًا (9)
हे ईमान वालो! याद करो अल्लाह के पुरस्कार को अपने ऊपर, जब आ गये तुम्हारे पास जत्थे, तो भेजी हमने उनपर आँधी और ऐसी सेनायें जिन्हें तुमने नहीं देखा और अल्लाह जो तुम कर रहे थे, उसे देख रहा था।
إِذْ جَاءُوكُم مِّن فَوْقِكُمْ وَمِنْ أَسْفَلَ مِنكُمْ وَإِذْ زَاغَتِ الْأَبْصَارُ وَبَلَغَتِ الْقُلُوبُ الْحَنَاجِرَ وَتَظُنُّونَ بِاللَّهِ الظُّنُونَا (10)
जब वे तुम्हारे पास आ गये, तुम्हारे ऊपर से तथा तुम्हारे नहीचे से और जब पथरा गयीं आँखें तथा आने लगे दिल मुँह[1] को तथा तुम विचारने लगे अल्लाह के संबन्ध में विभिन्न विचार।
هُنَالِكَ ابْتُلِيَ الْمُؤْمِنُونَ وَزُلْزِلُوا زِلْزَالًا شَدِيدًا (11)
यहीं परीक्षा ली गयी ईमान वालों की और वे झंझोड़ दिये गये पूर्ण रूप से।
وَإِذْ يَقُولُ الْمُنَافِقُونَ وَالَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٌ مَّا وَعَدَنَا اللَّهُ وَرَسُولُهُ إِلَّا غُرُورًا (12)
और जब कहने लगे मुश्रिक़ और जिनके दिलों में कुछ रोग था कि अल्लाह तथा उसके रसूल ने नहीं वचन दिया हमें, परन्तु धोखे का।
وَإِذْ قَالَت طَّائِفَةٌ مِّنْهُمْ يَا أَهْلَ يَثْرِبَ لَا مُقَامَ لَكُمْ فَارْجِعُوا ۚ وَيَسْتَأْذِنُ فَرِيقٌ مِّنْهُمُ النَّبِيَّ يَقُولُونَ إِنَّ بُيُوتَنَا عَوْرَةٌ وَمَا هِيَ بِعَوْرَةٍ ۖ إِن يُرِيدُونَ إِلَّا فِرَارًا (13)
और जब कहा उनके एक गिरोह नेः हे यस्रिब[1] वालो! कोई स्थान नहीं तुम्हारे लिए, अतः, लौट[2] चलो तथा अनुमति माँगने लगा उनमें से एक गिरोह नबी से, कहने लगाः हमारे घर खाली हैं, जबकि वह खाली न थे। वे तो बस निश्चय कर रहे थे भाग जाने का।
وَلَوْ دُخِلَتْ عَلَيْهِم مِّنْ أَقْطَارِهَا ثُمَّ سُئِلُوا الْفِتْنَةَ لَآتَوْهَا وَمَا تَلَبَّثُوا بِهَا إِلَّا يَسِيرًا (14)
और यदि प्रवेश कर जातीं उनपर मदीने के चारों ओर से (सेनायें), फिर उनसे माँग की जाती उपद्रव[1] की, तो अवश्य उपद्रव कर देते और उसमें तनिक भी देर नहीं करते।
وَلَقَدْ كَانُوا عَاهَدُوا اللَّهَ مِن قَبْلُ لَا يُوَلُّونَ الْأَدْبَارَ ۚ وَكَانَ عَهْدُ اللَّهِ مَسْئُولًا (15)
जबकि उन्होंने वचन दिया था अल्लाह को इससे पूर्व कि पीछा नहीं दिखायेंगे और अल्लाह के वचन का प्रश्न अवश्य किया जायेगा।
قُل لَّن يَنفَعَكُمُ الْفِرَارُ إِن فَرَرْتُم مِّنَ الْمَوْتِ أَوِ الْقَتْلِ وَإِذًا لَّا تُمَتَّعُونَ إِلَّا قَلِيلًا (16)
आप कह दें: कदापि लाभ नहीं पहुँचायेगा तुम्हें भागना, यदि तुम भाग जाओ मरण से और तब तुम थोड़ा ही[1] लाभ प्राप्त कर सकोगे।
قُلْ مَن ذَا الَّذِي يَعْصِمُكُم مِّنَ اللَّهِ إِنْ أَرَادَ بِكُمْ سُوءًا أَوْ أَرَادَ بِكُمْ رَحْمَةً ۚ وَلَا يَجِدُونَ لَهُم مِّن دُونِ اللَّهِ وَلِيًّا وَلَا نَصِيرًا (17)
आप पूछिये कि वह कौन है, जो तुम्हें बचा सके अल्लाह से, यदि वह तुम्हारे साथ बुराई चाहे अथवा तुम्हारे साथ भलाई चाहे? और वह अपने लिए नहीं पायेंगे अल्लाह के सिवा कोई संरक्षक और न कोई सहायक।
۞ قَدْ يَعْلَمُ اللَّهُ الْمُعَوِّقِينَ مِنكُمْ وَالْقَائِلِينَ لِإِخْوَانِهِمْ هَلُمَّ إِلَيْنَا ۖ وَلَا يَأْتُونَ الْبَأْسَ إِلَّا قَلِيلًا (18)
जानता है अल्लाह उन्हें, जो रोकने वाले हैं तुममें से तथा कहने वाले हैं अपने भाईयों से कि हमारे पास चले आओ तथा नहीं आते हैं युध्द में, परन्तु कभी-कभी।
أَشِحَّةً عَلَيْكُمْ ۖ فَإِذَا جَاءَ الْخَوْفُ رَأَيْتَهُمْ يَنظُرُونَ إِلَيْكَ تَدُورُ أَعْيُنُهُمْ كَالَّذِي يُغْشَىٰ عَلَيْهِ مِنَ الْمَوْتِ ۖ فَإِذَا ذَهَبَ الْخَوْفُ سَلَقُوكُم بِأَلْسِنَةٍ حِدَادٍ أَشِحَّةً عَلَى الْخَيْرِ ۚ أُولَٰئِكَ لَمْ يُؤْمِنُوا فَأَحْبَطَ اللَّهُ أَعْمَالَهُمْ ۚ وَكَانَ ذَٰلِكَ عَلَى اللَّهِ يَسِيرًا (19)
वह बड़े कंजूस हैं तुमपर। फिर जब आ जाये भय का[1] समय, तो आप उन्हें देखेंगे कि आपकी ओर तक रहे हैं, फिर रही हैं उनकी आँखें, उसके समान, जो मरणासन्न दशा में हो और जब दूर हो जाये भय, तो वह मिलेंगे तुमसे तेज़ ज़ुबानों[2] से, बड़े लोभी होकर धन के। वे ईमान नहीं लाये हैं। अतः, व्यर्थ कर दिये अल्लाह ने उनके सभी कर्म तथा ये अल्लाह पर अति सरल है।
يَحْسَبُونَ الْأَحْزَابَ لَمْ يَذْهَبُوا ۖ وَإِن يَأْتِ الْأَحْزَابُ يَوَدُّوا لَوْ أَنَّهُم بَادُونَ فِي الْأَعْرَابِ يَسْأَلُونَ عَنْ أَنبَائِكُمْ ۖ وَلَوْ كَانُوا فِيكُم مَّا قَاتَلُوا إِلَّا قَلِيلًا (20)
वे समझते हैं कि जत्थे नहीं[1] गये और यदि आ जायें सेनायें, तो वे चाहेंगे कि वे गाँव में हों, गाँव वालों के बीच तथा पूछते रहें तुम्हारे समाचार और यदि तुममें होते भी, तो वे युध्द में कम ही भाग लेते।
لَّقَدْ كَانَ لَكُمْ فِي رَسُولِ اللَّهِ أُسْوَةٌ حَسَنَةٌ لِّمَن كَانَ يَرْجُو اللَّهَ وَالْيَوْمَ الْآخِرَ وَذَكَرَ اللَّهَ كَثِيرًا (21)
तुम्हारे लिए अल्लाह के रसूल में उत्तम[1] आदर्श है, उसके लिए, जो आशा रखता हो अल्लाह और अन्तिम दिन (प्रलय) की तथा याद करो अल्लाह को अत्यधिक।
وَلَمَّا رَأَى الْمُؤْمِنُونَ الْأَحْزَابَ قَالُوا هَٰذَا مَا وَعَدَنَا اللَّهُ وَرَسُولُهُ وَصَدَقَ اللَّهُ وَرَسُولُهُ ۚ وَمَا زَادَهُمْ إِلَّا إِيمَانًا وَتَسْلِيمًا (22)
और जब ईमान वालों ने सेनायें देखीं, तो कहाः यही है, जिसका वचन दिया था हमें अल्लाह और उसके रसूल ने और सच कहा अल्लाह और उसके रसूल ने और इसने अधिक नहीं किया, परन्तु (उनके) ईमान तथा स्वीकार को।
مِّنَ الْمُؤْمِنِينَ رِجَالٌ صَدَقُوا مَا عَاهَدُوا اللَّهَ عَلَيْهِ ۖ فَمِنْهُم مَّن قَضَىٰ نَحْبَهُ وَمِنْهُم مَّن يَنتَظِرُ ۖ وَمَا بَدَّلُوا تَبْدِيلًا (23)
ईमान वालों में कुछ वे भी हैं, जिन्होंने सच कर दिखाया अल्लाह से किये हुए अपने वचन को। तो उनमें कुछ ने अपना वचन[1] पूरा कर दिया और उनमें से कुछ प्रतीक्षा कर रहे हैं और उन्होंने तनिक भी परिवर्तन नहीं किया।
لِّيَجْزِيَ اللَّهُ الصَّادِقِينَ بِصِدْقِهِمْ وَيُعَذِّبَ الْمُنَافِقِينَ إِن شَاءَ أَوْ يَتُوبَ عَلَيْهِمْ ۚ إِنَّ اللَّهَ كَانَ غَفُورًا رَّحِيمًا (24)
ताकि अल्लाह प्रतिफल प्रदान करे सचों को उनके सच का तथा यातना दे मुनाफ़िक़ों को अथवा उन्हें क्षमा कर दे। वास्तव में, अल्लाह अति क्षमाशील और दयावान् है।
وَرَدَّ اللَّهُ الَّذِينَ كَفَرُوا بِغَيْظِهِمْ لَمْ يَنَالُوا خَيْرًا ۚ وَكَفَى اللَّهُ الْمُؤْمِنِينَ الْقِتَالَ ۚ وَكَانَ اللَّهُ قَوِيًّا عَزِيزًا (25)
तथा फेर दिया अल्लाह ने काफ़िरों को (मदीना से) उनके क्रोध के साथ। वे नहीं प्राप्त कर सके कोई भलाई और पर्याप्त हो गया अल्लाह ईमान वालों के लिए युध्द में और अल्लाह अति शक्तिशाली तथा प्रभुत्वशाली है।
وَأَنزَلَ الَّذِينَ ظَاهَرُوهُم مِّنْ أَهْلِ الْكِتَابِ مِن صَيَاصِيهِمْ وَقَذَفَ فِي قُلُوبِهِمُ الرُّعْبَ فَرِيقًا تَقْتُلُونَ وَتَأْسِرُونَ فَرِيقًا (26)
और उतार दिया अल्लाह ने उन अह्ले किताब को, जिन्होंने सहायता की उन (सेनाओं) की, उनके दुर्गों से तथा डाल दिया उनके दिलों में भय।[1] उनके एक गिरोह को तुम वध कर रहे थे तथा बंदी बना रहे थे एक-दूसरे गिरोह को।
وَأَوْرَثَكُمْ أَرْضَهُمْ وَدِيَارَهُمْ وَأَمْوَالَهُمْ وَأَرْضًا لَّمْ تَطَئُوهَا ۚ وَكَانَ اللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرًا (27)
और तुम्हारे अधिकार में दे दी उनकी भूमि तथा उनके घरों और धनों को और ऐसी धरती को, जिसपर तुमने पग नहीं रखे थे तथा अल्लाह जो चाहे, कर सकता है।
يَا أَيُّهَا النَّبِيُّ قُل لِّأَزْوَاجِكَ إِن كُنتُنَّ تُرِدْنَ الْحَيَاةَ الدُّنْيَا وَزِينَتَهَا فَتَعَالَيْنَ أُمَتِّعْكُنَّ وَأُسَرِّحْكُنَّ سَرَاحًا جَمِيلًا (28)
हे नबी! आप अपनी पत्नियों से कह दो कि यदि तुम चाहती हो सांसारिक जीवन तथा उसकी शोभा, तो आओ, मैं तुम्हें कुछ दे दूँ तथा विदा कर दूँ, अच्छाई के साथ।
وَإِن كُنتُنَّ تُرِدْنَ اللَّهَ وَرَسُولَهُ وَالدَّارَ الْآخِرَةَ فَإِنَّ اللَّهَ أَعَدَّ لِلْمُحْسِنَاتِ مِنكُنَّ أَجْرًا عَظِيمًا (29)
और यदि तुम चाहती हो अल्लाह और उसके रसूल तथा आख़िरत के घर को, तो अल्लाह ने तैयार कर रखा है तुममें से सदाचारिणियों के लिए भारी प्रतिफल।
يَا نِسَاءَ النَّبِيِّ مَن يَأْتِ مِنكُنَّ بِفَاحِشَةٍ مُّبَيِّنَةٍ يُضَاعَفْ لَهَا الْعَذَابُ ضِعْفَيْنِ ۚ وَكَانَ ذَٰلِكَ عَلَى اللَّهِ يَسِيرًا (30)
हे नबी की पत्नियो! जो तुममें से खुला दुराचार करेगी उसके लिए दुगनी कर दी जायेगी यातना और ये अल्लाह पर अति सरल है।
۞ وَمَن يَقْنُتْ مِنكُنَّ لِلَّهِ وَرَسُولِهِ وَتَعْمَلْ صَالِحًا نُّؤْتِهَا أَجْرَهَا مَرَّتَيْنِ وَأَعْتَدْنَا لَهَا رِزْقًا كَرِيمًا (31)
तथा जो मानेंगी तुममें से अल्लाह तथा उसके रसूल की बात और सदाचार करेंगी, हम उन्हें प्रदामन करेंगे उनका प्रतिफल दोहरा और हमने तैयार की है उनके लिए उत्तम जीविका।
يَا نِسَاءَ النَّبِيِّ لَسْتُنَّ كَأَحَدٍ مِّنَ النِّسَاءِ ۚ إِنِ اتَّقَيْتُنَّ فَلَا تَخْضَعْنَ بِالْقَوْلِ فَيَطْمَعَ الَّذِي فِي قَلْبِهِ مَرَضٌ وَقُلْنَ قَوْلًا مَّعْرُوفًا (32)
हे नबी की पत्नियो! तुम नहीं हो अन्य स्त्रियों के समान। यदि तुम अल्लाह से डरती हो, तो कोमल भाव से बात न करो कि लोभ करने लगे वे, जिनके दिल में रोग हो और सभ्य बात बोलो।
وَقَرْنَ فِي بُيُوتِكُنَّ وَلَا تَبَرَّجْنَ تَبَرُّجَ الْجَاهِلِيَّةِ الْأُولَىٰ ۖ وَأَقِمْنَ الصَّلَاةَ وَآتِينَ الزَّكَاةَ وَأَطِعْنَ اللَّهَ وَرَسُولَهُ ۚ إِنَّمَا يُرِيدُ اللَّهُ لِيُذْهِبَ عَنكُمُ الرِّجْسَ أَهْلَ الْبَيْتِ وَيُطَهِّرَكُمْ تَطْهِيرًا (33)
और रहो अपने घरों में और सौन्दर्य का प्रदर्शन न करो, प्रथम अज्ञान युग के प्रदर्शन के समान तथा नमाज़ की स्थापना करो, ज़कात दो तथा आज्ञा पालन करो अल्लाह और उसके रसूल की। अल्लाह चाहता है कि मलिनता को दूर कर दे तुमसे, हे नबी की घर वालियो! तथा तुम्हें पवित्र कर दे,, अति पवित्र।
وَاذْكُرْنَ مَا يُتْلَىٰ فِي بُيُوتِكُنَّ مِنْ آيَاتِ اللَّهِ وَالْحِكْمَةِ ۚ إِنَّ اللَّهَ كَانَ لَطِيفًا خَبِيرًا (34)
तथा याद रखो उसे, जो पढ़ी जाती है तुम्हारे घरों में, अल्लाह की आयतों तथा हिक्मत में से।[1] वास्तव में अल्लाह सूक्ष्मदर्शी, सर्व सूचित है।
إِنَّ الْمُسْلِمِينَ وَالْمُسْلِمَاتِ وَالْمُؤْمِنِينَ وَالْمُؤْمِنَاتِ وَالْقَانِتِينَ وَالْقَانِتَاتِ وَالصَّادِقِينَ وَالصَّادِقَاتِ وَالصَّابِرِينَ وَالصَّابِرَاتِ وَالْخَاشِعِينَ وَالْخَاشِعَاتِ وَالْمُتَصَدِّقِينَ وَالْمُتَصَدِّقَاتِ وَالصَّائِمِينَ وَالصَّائِمَاتِ وَالْحَافِظِينَ فُرُوجَهُمْ وَالْحَافِظَاتِ وَالذَّاكِرِينَ اللَّهَ كَثِيرًا وَالذَّاكِرَاتِ أَعَدَّ اللَّهُ لَهُم مَّغْفِرَةً وَأَجْرًا عَظِيمًا (35)
निःसंदेह, मुसलमान पुरुष और मुसलमान स्त्रियाँ, ईमान वाले पुरुष और ईमान वाली स्त्रियाँ, आज्ञाकारी पुरुष और आज्ञाकारिणी स्त्रियाँ, सच्चे पुरुष तथा सच्ची स्त्रियाँ, सहनशील पुरुष और सहनशील स्त्रियाँ, विनीत पुरुष और विनीत स्त्रियाँ, दानशील पुरुष और दानशील स्त्रियाँ, रोज़ा रखने वाले पुरुष और रोज़ा रखने वाली स्त्रियाँ, अपने गुप्तांगों की रक्षा करने वाले पुरुष तथा रक्षा करने वाली स्त्रियाँ तथा अल्लाह को अत्यधिक याद करने वाले पुरुष और याद करने वाली स्त्रियाँ, तैयार कर रखा है अल्लाह ने इन्हीं के लिए क्षमा तथा महान प्रतिफल।
وَمَا كَانَ لِمُؤْمِنٍ وَلَا مُؤْمِنَةٍ إِذَا قَضَى اللَّهُ وَرَسُولُهُ أَمْرًا أَن يَكُونَ لَهُمُ الْخِيَرَةُ مِنْ أَمْرِهِمْ ۗ وَمَن يَعْصِ اللَّهَ وَرَسُولَهُ فَقَدْ ضَلَّ ضَلَالًا مُّبِينًا (36)
तथा किसी ईमान वाले पुरुष और ईमान वाली स्त्री के लिए योग्य नहीं कि जब निर्णय कर दे अल्लाह तथा उसके रसूल किसी बात का, तो उनके लिए अधिकार रह जाये अपने विषय में और जो अवज्ञा करेगा अल्लाह एवं उसके रसूल की, तो वह खुले कुपथ में[1] पड़ गया।
وَإِذْ تَقُولُ لِلَّذِي أَنْعَمَ اللَّهُ عَلَيْهِ وَأَنْعَمْتَ عَلَيْهِ أَمْسِكْ عَلَيْكَ زَوْجَكَ وَاتَّقِ اللَّهَ وَتُخْفِي فِي نَفْسِكَ مَا اللَّهُ مُبْدِيهِ وَتَخْشَى النَّاسَ وَاللَّهُ أَحَقُّ أَن تَخْشَاهُ ۖ فَلَمَّا قَضَىٰ زَيْدٌ مِّنْهَا وَطَرًا زَوَّجْنَاكَهَا لِكَيْ لَا يَكُونَ عَلَى الْمُؤْمِنِينَ حَرَجٌ فِي أَزْوَاجِ أَدْعِيَائِهِمْ إِذَا قَضَوْا مِنْهُنَّ وَطَرًا ۚ وَكَانَ أَمْرُ اللَّهِ مَفْعُولًا (37)
तथा (हे नबी!) आप वह समय याद करें, जब आप उससे कह रहे थे, उपकार किया अल्लाह ने जिसपर तथा आपने उपकार किया जिसपर, रोक ले अपनी पत्नी को तथा अल्लाह से डर और आप छुपा रहे थे अपने मन में जिसे, अल्लाह उजागर करने वाला[1] था तथा डर रहे थे तुम लोगों से, जबकि अल्लाह अधिक योग्य था कि उससे डरते, तो जब ज़ैद ने पूरी करली उस (स्त्री) से अपनी आवश्यक्ता, तो हमने विवाह दिया उसे आपसे, ताकि ईमान वालों पर कोई दोष न रहे, अपने मुँह बोले पुत्रों की पत्नियों कि विषय[2] में, जब वह पूरी करलें उनसे अपनी आवश्यक्ता तथा अल्लाह का आदेश पूरा होकर रहा।
مَّا كَانَ عَلَى النَّبِيِّ مِنْ حَرَجٍ فِيمَا فَرَضَ اللَّهُ لَهُ ۖ سُنَّةَ اللَّهِ فِي الَّذِينَ خَلَوْا مِن قَبْلُ ۚ وَكَانَ أَمْرُ اللَّهِ قَدَرًا مَّقْدُورًا (38)
नहीं है नबी पर कोई तंगी उसमें जिसका आदेश दिया है अल्लाह ने उनके लिए।[1] अल्लाह का यही नियम रहा है उन नबियों में, जो हुए हैं आपसे पहले तथा अल्लाह का निश्चित किया आदेश पूरा होना ही है।
الَّذِينَ يُبَلِّغُونَ رِسَالَاتِ اللَّهِ وَيَخْشَوْنَهُ وَلَا يَخْشَوْنَ أَحَدًا إِلَّا اللَّهَ ۗ وَكَفَىٰ بِاللَّهِ حَسِيبًا (39)
जो पहुँचाते हैं अल्लाह के आदेश तथा उससे डरते हैं, वे नहीं डरते हैं किसी से, उसके सिवा और पर्याप्त है अल्लाह ह़िसाब लेने के लिए।
مَّا كَانَ مُحَمَّدٌ أَبَا أَحَدٍ مِّن رِّجَالِكُمْ وَلَٰكِن رَّسُولَ اللَّهِ وَخَاتَمَ النَّبِيِّينَ ۗ وَكَانَ اللَّهُ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمًا (40)
मुह़म्मद तुम्हारे पुरुषों मेंसे किसी के पिता नहीं हैं। किन्तु, वे[1] अल्लाह के रसूल और सब नबियों में अन्तिम[2] हैं और अल्लाह प्रत्येक वस्तु का अति ज्ञानी है।
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا اذْكُرُوا اللَّهَ ذِكْرًا كَثِيرًا (41)
हे ईमान वालो! याद करते रहो अल्लाह को, अत्यधिक।
وَسَبِّحُوهُ بُكْرَةً وَأَصِيلًا (42)
तथा पवित्रता बयान करते रहो उसकी प्रातः तथा संध्या।
هُوَ الَّذِي يُصَلِّي عَلَيْكُمْ وَمَلَائِكَتُهُ لِيُخْرِجَكُم مِّنَ الظُّلُمَاتِ إِلَى النُّورِ ۚ وَكَانَ بِالْمُؤْمِنِينَ رَحِيمًا (43)
वही है, जो दया कर रहा है तुमपर तथा प्रार्थना कर रहे हैं (तुम्हारे लिए) उसके फ़रिश्ते। ताकि वह निकाल दे तुम्हें अंधेरों से, प्रकाश[1] की ओर तथा ईमान वालों पर अत्यंत दयावान् है।
تَحِيَّتُهُمْ يَوْمَ يَلْقَوْنَهُ سَلَامٌ ۚ وَأَعَدَّ لَهُمْ أَجْرًا كَرِيمًا (44)
उनका स्वागत, जिस दिन उससे मिलेंगे, सलाम से होगा और उसने तैयार कर रखा है उनके लिए सम्मानित प्रतिफल।
يَا أَيُّهَا النَّبِيُّ إِنَّا أَرْسَلْنَاكَ شَاهِدًا وَمُبَشِّرًا وَنَذِيرًا (45)
हे नबी! हमने भेजा है आपको साक्षी,[1] शुभसूचक[2] और सचेतकर्ता[3] बनाकर।
وَدَاعِيًا إِلَى اللَّهِ بِإِذْنِهِ وَسِرَاجًا مُّنِيرًا (46)
तथा बुलाने वाला बनाकर अल्लाह की ओर उसकी अनुमति से तथा प्रकाशित प्रदीप बनाकर।
وَبَشِّرِ الْمُؤْمِنِينَ بِأَنَّ لَهُم مِّنَ اللَّهِ فَضْلًا كَبِيرًا (47)
तथा आप शुभ सूचना सुना दें ईमान वालों को कि उनके लिए अल्लाह की ओर से बड़ा अनुग्रह है।
وَلَا تُطِعِ الْكَافِرِينَ وَالْمُنَافِقِينَ وَدَعْ أَذَاهُمْ وَتَوَكَّلْ عَلَى اللَّهِ ۚ وَكَفَىٰ بِاللَّهِ وَكِيلًا (48)
तथा न बात मानें काफ़िरों और मुनाफ़िक़ों की तथा न चिन्ता करें उनके दुःख पहुँचाने की और भरोसा करें अल्लाह पर तथा पर्याप्त है अल्लाह काम बनाने के लिए।
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا إِذَا نَكَحْتُمُ الْمُؤْمِنَاتِ ثُمَّ طَلَّقْتُمُوهُنَّ مِن قَبْلِ أَن تَمَسُّوهُنَّ فَمَا لَكُمْ عَلَيْهِنَّ مِنْ عِدَّةٍ تَعْتَدُّونَهَا ۖ فَمَتِّعُوهُنَّ وَسَرِّحُوهُنَّ سَرَاحًا جَمِيلًا (49)
हे ईमान वालो! जब तुम विवाह करो ईमान वालियों से, फिर तलाक़ दो उन्हें, इससे पूर्व कि हाथ लगाओ उनको, तो नहीं है तुम्हारे लिए उनपर कोई इद्दत,[1] जिसकी तुम गणना करो। तो तुम उन्हें कुछ लाभ पहुँचाओ और उन्हें विदा करो भलाई के साथ।
يَا أَيُّهَا النَّبِيُّ إِنَّا أَحْلَلْنَا لَكَ أَزْوَاجَكَ اللَّاتِي آتَيْتَ أُجُورَهُنَّ وَمَا مَلَكَتْ يَمِينُكَ مِمَّا أَفَاءَ اللَّهُ عَلَيْكَ وَبَنَاتِ عَمِّكَ وَبَنَاتِ عَمَّاتِكَ وَبَنَاتِ خَالِكَ وَبَنَاتِ خَالَاتِكَ اللَّاتِي هَاجَرْنَ مَعَكَ وَامْرَأَةً مُّؤْمِنَةً إِن وَهَبَتْ نَفْسَهَا لِلنَّبِيِّ إِنْ أَرَادَ النَّبِيُّ أَن يَسْتَنكِحَهَا خَالِصَةً لَّكَ مِن دُونِ الْمُؤْمِنِينَ ۗ قَدْ عَلِمْنَا مَا فَرَضْنَا عَلَيْهِمْ فِي أَزْوَاجِهِمْ وَمَا مَلَكَتْ أَيْمَانُهُمْ لِكَيْلَا يَكُونَ عَلَيْكَ حَرَجٌ ۗ وَكَانَ اللَّهُ غَفُورًا رَّحِيمًا (50)
हे नबी! हमने ह़लाल (वैध) कर दिया है आपके लिए आपकी पत्नियों को, जिन्हें चुका दिया हो आपने उनका महर (विवाह उपहार) तथा जो आपके स्वामित्व में हो, उसमें से, जो प्रदान किया है अल्लाह ने आप[1] को तथा आपके चाचा की पुत्रियों, आपकी फूफी की पुत्रियों, आपके मामा की पुत्रियों तथा मौसी की पुत्रियों को, जिन्होंने हिजरत की है आपके साथ तथा किसी भी ईमान वाली नारी को, यदि वह स्वयं को दान कर दे नबी के लिए, यदि नबी चाहें कि उससे विवाह कर लें। ये विशेष है आपके लिए अन्य ईमान लालों को छोड़कर। हमें ज्ञान है उसका, जो हमने अनिवार्य किया है उनपर, उनकी पत्नियों तथा उनके स्वामित्व में आयी दासियों के सम्बंध[2] में। ताकि तुमपर कोई संकीर्णता (तंगी) न हो और अल्लाह अति क्षमी, दयावान् है।
۞ تُرْجِي مَن تَشَاءُ مِنْهُنَّ وَتُؤْوِي إِلَيْكَ مَن تَشَاءُ ۖ وَمَنِ ابْتَغَيْتَ مِمَّنْ عَزَلْتَ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْكَ ۚ ذَٰلِكَ أَدْنَىٰ أَن تَقَرَّ أَعْيُنُهُنَّ وَلَا يَحْزَنَّ وَيَرْضَيْنَ بِمَا آتَيْتَهُنَّ كُلُّهُنَّ ۚ وَاللَّهُ يَعْلَمُ مَا فِي قُلُوبِكُمْ ۚ وَكَانَ اللَّهُ عَلِيمًا حَلِيمًا (51)
(आपको अधिकार है कि) जिसे आप चाहें, अलग रखें अपनी पत्नियों में से और अपने साथ रखें, जिसे चाहें और जिसे आप चाहें, बुला लें उनमें से, जिन्हें अलग किया है। आपपर कोई दोष नहीं है। इस प्रकार, अधिक आशा है कि उनकी आँखें शीतल हों और वे उदासीन न हों तथा प्रसन्न रहें उससे, जो आप उनसब को दें और अल्लाह जानता है जो तुम्हारे दिलों[1] में है और अल्लाह अति ज्ञानी, सहनशील[2] है।
لَّا يَحِلُّ لَكَ النِّسَاءُ مِن بَعْدُ وَلَا أَن تَبَدَّلَ بِهِنَّ مِنْ أَزْوَاجٍ وَلَوْ أَعْجَبَكَ حُسْنُهُنَّ إِلَّا مَا مَلَكَتْ يَمِينُكَ ۗ وَكَانَ اللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ رَّقِيبًا (52)
(हे नबी!) नहीं ह़लाल (वैध) हैं आपके लिए पत्नियाँ इसके पश्चात् और न ये कि आप बदलें उन्हें दूसरी पत्नियों[1] से, यद्यपि आपको भाये उनका सौन्दर्य। परन्तु, जो दासी आपके स्वामित्व में आ जाये तथा अल्लाह प्रत्येक वस्तु का पूर्ण रक्षक है।
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا تَدْخُلُوا بُيُوتَ النَّبِيِّ إِلَّا أَن يُؤْذَنَ لَكُمْ إِلَىٰ طَعَامٍ غَيْرَ نَاظِرِينَ إِنَاهُ وَلَٰكِنْ إِذَا دُعِيتُمْ فَادْخُلُوا فَإِذَا طَعِمْتُمْ فَانتَشِرُوا وَلَا مُسْتَأْنِسِينَ لِحَدِيثٍ ۚ إِنَّ ذَٰلِكُمْ كَانَ يُؤْذِي النَّبِيَّ فَيَسْتَحْيِي مِنكُمْ ۖ وَاللَّهُ لَا يَسْتَحْيِي مِنَ الْحَقِّ ۚ وَإِذَا سَأَلْتُمُوهُنَّ مَتَاعًا فَاسْأَلُوهُنَّ مِن وَرَاءِ حِجَابٍ ۚ ذَٰلِكُمْ أَطْهَرُ لِقُلُوبِكُمْ وَقُلُوبِهِنَّ ۚ وَمَا كَانَ لَكُمْ أَن تُؤْذُوا رَسُولَ اللَّهِ وَلَا أَن تَنكِحُوا أَزْوَاجَهُ مِن بَعْدِهِ أَبَدًا ۚ إِنَّ ذَٰلِكُمْ كَانَ عِندَ اللَّهِ عَظِيمًا (53)
हे ईमान वालो! मत प्रवेश करो नबी के घरों में, परन्तु ये कि अनुमति दी जाये तुम्हें भोज के लिए, परन्तु, भोजन पकने की प्रतीक्षा न करते रहो। किन्तु, जब तुम बुलाये जाओ, तो प्रवेश करो, फिर जब भोजन करलो, तो निकल जाओ। लीन न रहो बातों में। वास्तव में, इससे नबी को दुःख होता है, अतः, वह तुमसे लजाते हैं और अल्लाह नहीं लजाता है सत्य[1] से तथा जबतुम नबी की पत्नियों से कुछ माँगो, तो पर्दे के पीछे से माँगो, ये अधिक पवित्रता का कारण है तुम्हारे दिलों तथा उनके दिलों के लिए और तुम्हारे लिए उचित नहीं है कि नबी को दुःख दो, न ये कि विवाह करो उनकी पत्नियों से, आपके पश्चात् कभी भी। वास्तव में, ये अल्लाह के समीप महा (पाप) है।
إِن تُبْدُوا شَيْئًا أَوْ تُخْفُوهُ فَإِنَّ اللَّهَ كَانَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمًا (54)
यदि तुम कुछ बोलो अथवा उसे मन में रखो, तो अल्लाह प्रत्येक वस्तु का अत्यंत ज्ञानी है।
لَّا جُنَاحَ عَلَيْهِنَّ فِي آبَائِهِنَّ وَلَا أَبْنَائِهِنَّ وَلَا إِخْوَانِهِنَّ وَلَا أَبْنَاءِ إِخْوَانِهِنَّ وَلَا أَبْنَاءِ أَخَوَاتِهِنَّ وَلَا نِسَائِهِنَّ وَلَا مَا مَلَكَتْ أَيْمَانُهُنَّ ۗ وَاتَّقِينَ اللَّهَ ۚ إِنَّ اللَّهَ كَانَ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ شَهِيدًا (55)
कोई दोष नहीं है उन (स्त्रियों) पर अपने पिताओं, न अपने पुत्रों, न अपने भाईयों, न अपने भतीजों, न अपनी (मेल-जोल की) स्त्रियों और न अपने स्वामित्व (दासी तथा दास) के सामने होने में, यदि वे अल्लाह से डरती रहें। वास्तव में, अल्लाह प्रत्येक वस्तु पर साक्षी है।
إِنَّ اللَّهَ وَمَلَائِكَتَهُ يُصَلُّونَ عَلَى النَّبِيِّ ۚ يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا صَلُّوا عَلَيْهِ وَسَلِّمُوا تَسْلِيمًا (56)
अल्लाह तथा उसके फ़रिश्ते दरूद[1] भेजते हैं नबी पर। हे ईमान वालो! उनपर दरूद तथा बहुत सलाम भेजो।
إِنَّ الَّذِينَ يُؤْذُونَ اللَّهَ وَرَسُولَهُ لَعَنَهُمُ اللَّهُ فِي الدُّنْيَا وَالْآخِرَةِ وَأَعَدَّ لَهُمْ عَذَابًا مُّهِينًا (57)
जो लोग दुःख देते हैं अल्लाह तथा उसके रसूल को, तो अल्लाह ने उन्हें धिक्कार दिया है लोक तथा परलोक में और तैयार की है उनके लिए अपमानकारी यातना।
وَالَّذِينَ يُؤْذُونَ الْمُؤْمِنِينَ وَالْمُؤْمِنَاتِ بِغَيْرِ مَا اكْتَسَبُوا فَقَدِ احْتَمَلُوا بُهْتَانًا وَإِثْمًا مُّبِينًا (58)
और जो दुःख देते हैं ईमान वालों तथा ईमान वालियों को, बिना किसी दोष के, जो उन्होंने किया हो, तो उन्होंने लाद लिया आरोप तथा खुले पाप को।
يَا أَيُّهَا النَّبِيُّ قُل لِّأَزْوَاجِكَ وَبَنَاتِكَ وَنِسَاءِ الْمُؤْمِنِينَ يُدْنِينَ عَلَيْهِنَّ مِن جَلَابِيبِهِنَّ ۚ ذَٰلِكَ أَدْنَىٰ أَن يُعْرَفْنَ فَلَا يُؤْذَيْنَ ۗ وَكَانَ اللَّهُ غَفُورًا رَّحِيمًا (59)
हे नबी! कह दो अपनी पत्नियों, अपनी पुत्रियों और ईमान वालों की स्त्रियों से कि डाल लिया करें अपने ऊपर अपनी चादरें। ये अधिक समीप है कि वे पहचान ली जायें। फिर उन्हें दुःख न दिया[1] जाये और अल्लाह अति क्षमि, दयावान् है।
۞ لَّئِن لَّمْ يَنتَهِ الْمُنَافِقُونَ وَالَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٌ وَالْمُرْجِفُونَ فِي الْمَدِينَةِ لَنُغْرِيَنَّكَ بِهِمْ ثُمَّ لَا يُجَاوِرُونَكَ فِيهَا إِلَّا قَلِيلًا (60)
यदि न रुके मुनाफ़िक़[1] तथा जिनके दिलों में रोग है और मदीना में अफ़्वाह फैलाने वाले, तो हम आपको भड़का देंगे उनपर। फिर वे आपके साथ नहीं रह सकेंगे उसमें, परन्तु कुछ ही दिन।
مَّلْعُونِينَ ۖ أَيْنَمَا ثُقِفُوا أُخِذُوا وَقُتِّلُوا تَقْتِيلًا (61)
धिक्कारे हुए। वे जहाँ पाये जायें, पकड़ लिए जायेंगे तथा जान से मार दिये जायेंगे।
سُنَّةَ اللَّهِ فِي الَّذِينَ خَلَوْا مِن قَبْلُ ۖ وَلَن تَجِدَ لِسُنَّةِ اللَّهِ تَبْدِيلًا (62)
यही अल्लाह का नियम रहा है उनमें, जो इनसे पूर्व रहे तथा आप कदापि नहीं पायेंगे अल्लाह के नियम में कोई परिवर्तन।
يَسْأَلُكَ النَّاسُ عَنِ السَّاعَةِ ۖ قُلْ إِنَّمَا عِلْمُهَا عِندَ اللَّهِ ۚ وَمَا يُدْرِيكَ لَعَلَّ السَّاعَةَ تَكُونُ قَرِيبًا (63)
प्रश्न करते हैं आपसे लोग[1] प्रलय विषय में। तो आप कह दें कि उसका ज्ञान तो अल्लाह ही को है। संभव है कि प्रलय समीप हो।
إِنَّ اللَّهَ لَعَنَ الْكَافِرِينَ وَأَعَدَّ لَهُمْ سَعِيرًا (64)
अल्लाह ने धिक्कार दिया है काफ़िरों को और तैयार कर रखी है, उनके लिए, दहकती अग्नि।
خَالِدِينَ فِيهَا أَبَدًا ۖ لَّا يَجِدُونَ وَلِيًّا وَلَا نَصِيرًا (65)
वे सदावासी होंगे उसमें। नहीं पायेंगे कोई रक्षक और न कोई सहायक।
يَوْمَ تُقَلَّبُ وُجُوهُهُمْ فِي النَّارِ يَقُولُونَ يَا لَيْتَنَا أَطَعْنَا اللَّهَ وَأَطَعْنَا الرَّسُولَا (66)
जिस दिन उलट-पलट किये जायेंगे उनके मुख अग्नि में, वे कहेंगेः हमारे लिए क्या ही अच्छा होता कि हम कहा मानते अल्लाह का तथा कहा मानते रसूल का
وَقَالُوا رَبَّنَا إِنَّا أَطَعْنَا سَادَتَنَا وَكُبَرَاءَنَا فَأَضَلُّونَا السَّبِيلَا (67)
तथा कहेंगेः हमारे पालनहार! हमने कहा माना अपने प्रमुखों एवं बड़ों का। तो उन्होंने हमें कुपथ कर दिया, सुपथ से।
رَبَّنَا آتِهِمْ ضِعْفَيْنِ مِنَ الْعَذَابِ وَالْعَنْهُمْ لَعْنًا كَبِيرًا (68)
हमारे पालनहार! उन्हें दुगुनी यातना दे तथा उन्हें धिक्कार दे, बड़ी धिक्कार।
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا تَكُونُوا كَالَّذِينَ آذَوْا مُوسَىٰ فَبَرَّأَهُ اللَّهُ مِمَّا قَالُوا ۚ وَكَانَ عِندَ اللَّهِ وَجِيهًا (69)
हे ईमान वालो! न हो जाओ उनके समान जिन्होंने मूसा को दुःख दिया, तो अल्लाह ने निर्दोष कर दिया[1] उसे उनकी बनाई बातों से और वह था अल्लाह के समक्ष सम्मानित।
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا اتَّقُوا اللَّهَ وَقُولُوا قَوْلًا سَدِيدًا (70)
हे ईमान वालो! अल्लाह से डरो तथा सही और सीधी बात बोलो।
يُصْلِحْ لَكُمْ أَعْمَالَكُمْ وَيَغْفِرْ لَكُمْ ذُنُوبَكُمْ ۗ وَمَن يُطِعِ اللَّهَ وَرَسُولَهُ فَقَدْ فَازَ فَوْزًا عَظِيمًا (71)
वह सुधार देगा तुम्हारे लिए तुम्हारे कर्मों को तथा क्षमा कर देगा तुम्हारे पापों को और जो अनुपालन करेगा अल्लाह तथा उसके रसूल का, तो उसने बड़ी सफलता प्राप्त कर ली।
إِنَّا عَرَضْنَا الْأَمَانَةَ عَلَى السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ وَالْجِبَالِ فَأَبَيْنَ أَن يَحْمِلْنَهَا وَأَشْفَقْنَ مِنْهَا وَحَمَلَهَا الْإِنسَانُ ۖ إِنَّهُ كَانَ ظَلُومًا جَهُولًا (72)
हमने प्रस्तुत किया अमानत[1] को आकाशों, धरती एवं पर्वतों पर, तो उनसबने इन्कार कर दिया उसका भार उठाने से तथा डर गये उससे। किन्तु, उसका भार ले लिया मनुष्य ने। वास्तव में, वह बड़ा अत्याचारी,[2] अज्ञान है।
لِّيُعَذِّبَ اللَّهُ الْمُنَافِقِينَ وَالْمُنَافِقَاتِ وَالْمُشْرِكِينَ وَالْمُشْرِكَاتِ وَيَتُوبَ اللَّهُ عَلَى الْمُؤْمِنِينَ وَالْمُؤْمِنَاتِ ۗ وَكَانَ اللَّهُ غَفُورًا رَّحِيمًا (73)
(ये अमानत का भार इसलिए लिया है) ताकि अल्लाह दण्ड दे मुनाफ़िक़ पुरुष तथा मुनाफ़िक़ स्त्रियों को और मुश्रिक पुरुष तथा स्त्रियों को तथा क्षमा कर दे अल्लाह ईमान वालों तथा ईमान वालियों को और अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान् है।
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13- الرعد14- إبراهيم15- الحجر
16- النحل17- الإسراء18- الكهف
19- مريم20- طه21- الأنبياء
22- الحج23- المؤمنون24- النور
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